रात के ढाई बजे होंगे… बागबहारा की गलियों में सन्नाटा पसरा था। आसमान पर चाँद भी जैसे डर के मारे छुप गया था। मगर एक घर… एक घर ऐसा था जहां नींद कभी आई ही नहीं…
बसंत पटेल – एक सीधा-सादा आदमी, जो दूसरों के बच्चों के स्कूल की देखभाल करता था, खुद के बच्चों के सपने पालता था। दिनभर काम, शाम को परिवार और अंदर ही अंदर घुलता हुआ दर्द। वो दर्द, जिसे ना कोई देख पाया… ना समझ पाया।
सुबह जब दरवाज़ा नहीं खुला… तो लोगों ने खटखटाया… फिर ज़ोर से पुकारा।
मगर जवाब में सिर्फ़ खामोशी थी – डरावनी, ठंडी, और मौत जैसी खामोशी।
दरवाज़ा टूटा।
पहली चीज़ जो दिखी — फांसी पर झूलता एक बाप।
नीचे ज़मीन पर, उसकी दुनिया — उसकी पत्नी और दो मासूम बच्चे — हमेशा के लिए सो चुके थे।
दीवारें चीख रही थीं।
दीवारों पर नहीं, मगर कागज़ के एक टुकड़े पर लिखा था —
"मैं कोई गलत काम नहीं किया… लेकिन लोगों की बातें मुझे हर दिन मार रही थीं।"
बसंत ने लिखा – वो किसी से बदला नहीं चाहता था, बस चैन चाहता था।
लेकिन दुनिया ने उसे वो भी नहीं दिया।
यह सिर्फ आत्महत्या नहीं थी।
यह एक सभ्यता पर सवाल था –
कि कब हम इतने बेरहम हो गए, कि एक इंसान को अपनी हँसी की कीमत जान देकर चुकानी पड़ी?